लोगों की राय

लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख

छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :81-8143-280-0

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

432 पाठक हैं

जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

पूर्व का प्रेम


पश्चिमी प्रेम ने पूर्व तक पहुँचने में काफी वक़्त लगा दिया। दरअसल वहाँ जब कोई वाद या इज्म बासी हो जाता है और उसमें से सड़ी हुई दुर्गंध आने लगती है, तभी यहाँ तक पहुँचता है। फिर भी बासी चीज़ ही काफी ताज़ा लगती है। वैसे सारा कुछ ही देरी से पहुँचता है, ऐसा भी नहीं है। कुछ चीजें वहाँ आज जन्म लेती हैं और कल ही यहाँ पहुँच जाती हैं। कुछ चीजें दो मिनट में ही आ पहुँचती हैं, कुछ चीजें पहुंचने में दो सौ साल लगा देती हैं। कुछेक चीजें, हजार साल गुज़र जाने के बाद भी नहीं पहुँचतीं। यह दृश्य क्या काफी जाना-पहचाना नहीं है कि मर्दो के हाथ में मोबाइल टेलीफोन है और दिमाग के कोष-कोष में औरत को दासी या यौन-सामग्री समझने का संस्कार! वहाँ से जो कुछ भी यहाँ पहुँचता है, वह सब यहाँ ग्रहण ही कर लिया जाए, ऐसा भी नहीं होता। यहाँ के दर्शन से जो मिलता-जुलता है, उसे रखकर, बाकी फेंक दिया जाता है। सभी कुछ वहाँ से ही यहाँ आता है, ऐसा भी नहीं है, यहाँ से भी बहुत कुछ वहाँ जाता है।

मैं जिस परिवार में पली-बढ़ी और बड़ी हुई, वहाँ प्रेम करना या प्रेम में पड़ना निषिद्ध था। वहाँ तो 'प्रेम' शब्द, अपनी जुबान पर लाना भी एक तरह से निषिद्ध था। निषेध के बावजूद परिवार के किसी बंदे ने चोरी-छिपे प्यार किया या प्यार में पड़ा, तो दूसरों ने यह ख़बर काफी डरते-डरते, शर्माते-सकुचाते हुए बताई है- 'उसके साथ उसने क्या नाम, चल रहा है; उसके साथ क्या नाम, वो चल रहा है।' सिर्फ मेरे ही परिवार में नहीं; दूसरे-दूसरे परिवारों में भी यही नियम चालू था, यह बात भी मुझे अपने स्कूल की लड़कियों का कानाफूसी में यह कहना कि फलाँ लड़की का फलाँ लड़के का क्या नाम से, वो चल रहा है, यह सुनकर ही मैं समझ जाती थी। वैसे उस लड़की से पूछने पर वह 'वो' का जिक्र सुनकर, आसमान से गिरती थी। मारे डर और शर्म से फक्क होकर, वह खुदा की कसमें खाती और कहती-उसका किसी से 'वो' नहीं है। इश्क करनेवाले लड़कों को आवारा, बदमाश कहा जाता और प्रेम करनेवाली लड़की को वद्जात कहकर, हालाँकि छिः-छिः किया जाता था, लेकिन प्रेम-प्यार के मामले में तीखा आकर्पण सभी के मन में होता था। प्यार करना जितना शर्मनाक था, यौनता उतनी नहीं थी। भाभी-देवर और साली-जीजा की यौन-रसीली वातें, यहाँ तक कि देह के ओने-कोने में छूने-छुवाने का खेल, खुलेआम चलता रहता था। नानी-दादी, ममिया सास, चचिया सास लोगों की जुबान एकदम से बेलगाम हो जाती। जेठानी-देवरानी और ननदों के सामने लाज-हया खोकर-वाचाल होना, ज़रा भी आपत्तिजनक नहीं था। शहर से निकलकर, गाँव में पहुँच जाएँ, वहाँ तो यौनता और ज़्यादा दाल-भात जैसी है। औरतें लगभग खाली बदन, बिंदास घाट तक जाती हैं, पानी भरकर लाती हैं, पुरानी-धुरानी पोखर पर नहाती हैं, भीगी हुई, देह से चिपकी साड़ी में घर लौटती हैं, दरवाजे पर बैठी-बैठी, छाती उघाड़कर बच्चे को दूध पिलाती हैं। तन-बदन के प्रति कोई लाज-शर्म नहीं। ढाँकने-तोपने का कायदा-कानून वे लोग जानती भी कम हैं। मानती भी कम हैं। एक-दूसरे के प्रति चाहे जिस भी आकर्षण से सही, सुंदर अली और सुरती बेगम, चाँदनी रातों में, सेम्हल पेड़ तले मिलते-जुलते हैं या विवाह करने की ज़िद ठाने हुए हैं, मगर उनकी जुबान पर उसे लेकर, चंद्रबिंदु तक, इसके पीछे होती हैं-काम-वासना! उन लोगों ने बायस्कोप नहीं देखा, लैला-मजनं या रहीम रूपवान की खोज-खबर नहीं रखते। ऐसे लोगों की प्यार के बारे में भी कोई धारणा नहीं होती। प्यार की धारणा तो नई-नई है। गाँव उजाड़कर बसाए गए नए-नए शहरों में यह धारणा अभी घुटनों के बल ही रेंग रही है। इस धारणा को उच्च शिक्षित, खानदानी परिवारों ने तत्काल लपक लिया और काफी पहले ही सर्वजन स्वीकृत काम को अश्लील घोषित करके, काम-वासना के बदन पर प्रेम की रेशमी चादर लपेट दी थी। इधर आधा गँवई, आधा शहरी, आधा शिक्षित परिवारों में प्रेम आते-आते भी अभी तक आ नहीं पाया था। ये-वो होकर बची रहती है।

अब यह तो ठीक तरह नहीं मालूम कि बंगाल में आदि कामकला ने अलंकारों में आवृत्त होकर, प्रेम माप कब से धारण किया, लेकिन मेरा ख्याल है कि यह बहुत पहले की घटना नहीं है। अतलांतिक लाँघकर, भारत महासागर में तैरते हुए, प्रेम इस बंगाल तक आ पहुँचा। बहरहाल, प्रेम यहाँ जैसे दाखिल हुआ, साथ ही साथ काम को अश्लीलता की पर्त में बनाने की प्यूरिटनों की साजिश भी आ पहुंची। वैध-अवैध का बँटवारा भी प्रबल हो उठा। आगंतुक प्रेम का एक टुकड़ा नोंचकर बंकिम चंद्र ने साहित्य में शामिल कर लिया और रवींद्रनाथ ने उसे एकबारगी माँज-घिसकर झक्झक् जगमग बनाकर, ड्रॉइंगरूम में सजाने लायक कला का रूप दे दिया। पिछली पूरी शती में नाच-गान-कविता-कहानी में कामगंधहीन प्रेम की जयजयकार गूंजती रही। मेरी देह में कुछ-कुछ होता है के बजाय मेरे मन में कुछ-कुछ होता है की गूंज बनी रही। फिल्म, साहित्य, संगीत में प्रेम की प्रखर उपस्थिति, इंसान को अपने में समोये रही। प्रेम की सँकरी अली-गली पार होने का दृश्य, हुबहू बयान करने के बावजूद, वह सँकरी राह जहाँ जाकर ख़त्म हो गई, उस गुफा का दृश्य अनुपस्थित रहा!

यौवन की शुरुआत में शरीर के अंग-अंग में जो अहसास होता है, जो अहसास प्रकृति के मौसम बदलने जैसा स्वाभाविक और अनिवार्य है, वह अहसास, चाहे जिस भी उपाय से हो, अभिव्यक्ति की राह खोजता फिरता है। खैर यह खोज तो चिरकाल से जारी है और एक-एक ढंग से एक-एक भंगिमा में, एक-एक तरीके से एक-एक भाषा में हमेशा ही अभिव्यक्त होता रहा है। प्रेम के माध्यम से इसका प्रकाश नया होने के बावजूद, इसी दौरान प्रेम की भाषा-भंगी में यथेष्ट परिवर्तन हुए। राजनीतिक और आर्थिक-सामाजिक परिवर्तनों के साथ-साथ प्रेम में भी परिवर्तन प्रकट हुए। सन् चालीस के दशक में जो रूप था, नब्बे के दशक में प्रेम ने अपना चोला बदल लिया! भूमंडलीकरण की वजह से प्रेम में यह परिवर्तन चुटकियों में नहीं घटता, लेकिन प्रेम का रूप दिनोंदिन बदलता रहा है। चाहे कोई भी, कैसी भी हवा हो, प्रेम को प्रभावित करता है, चूंकि प्रेम सर्वत्र विराजमान है। विज्ञान जिस रफ्तार से आगे बढ़ रहा है, तीसरी दुनिया की अर्थनीति उस रफ्तार से आगे नहीं बढ़ी, अब गाँव-गाँव में टेलीविजन, वी. सी. आर. पहुंच गए हैं; सिनेमाघर बन गए हैं; हाट-बाज़ारों के किनारे, बूढ़े बरगद तले किताबों की दुकानें खुल गई हैं। इन सब गुणों या दोष की वजह से सुंदर अली और सुरती बेगम को अहसास हो गया है कि आँखों के किस इशारे का क्या अर्थ है; होठों की कौन-सी मुस्कान क्या कहना चाहती है; उँगली का कौन-सा स्पर्श, कहाँ, कैसा सिहरन जगाता है। देह पर बनैली भैंस की तरह टूट पड़ने, देह की भूख मिटाने से पहले, करीब आना, आपस में खूब सटकर बैठना, शर्म से चेहरा झुकाये रहना, धड़कते दिल से अपनी बगल में बैठे साथी की तरफ तिरछी निगाहों से देखना, अपने दिल का हाल बताना, उसके सीने में चेहरा दुबकाए रहना, होठों से होठों का मिलन-यानी घूम-फिरकर, काफी लंबे अर्से तक मन का ताप, ज़रा-ज़रा मात्रा में समूची देह में संचारित करना; गुलाबों की खुशबू में देह को देह में डुबोए हुए, मछली-मछली का खेल खेलने में, सच ही ज़्यादा आनंद आता है। प्यार को काफी हद तक बोरिंग फोरप्ले कहा जाए, तो गलत नहीं होगा। फोरप्ले में कोई ज़्यादा वक्त लगाता है, कोई कम! शहरी जीवन में भूमंडलीकरण का असर आजकल स्पष्ट है। बड़े-बड़े शहरों में कुछ ज़्यादा। छोटे शहरों में कम! उच्चवित्त में कुछ ज़्यादा, मध्यवित्त में कुछ कम! शिक्षित लोगों में ज़्यादा, अशिक्षित लोगों में कम! प्रेम का भी हाव-भाव ओना-कोना कुछ अलग ज़रूर है, लेकिन चाहे जैसा हो, अब बहुतेरे लोगों ने दुनिया के अन्यान्य देशों के, खासकर पश्चिम के देशों में प्रेम का जो चेहरा है, उसके बारे में सिर्फ सुना ही नहीं, अब तो देख भी लिया है। शुरू-शुरू में भले आँख-भौंह चढ़ाकर देखा, मगर धीरे-धीरे आँखें यथास्थान लौट आईं। काम को अश्लीलता के वर्क से मुक्त करके, उसे महिमा प्रदान करके, आजकल पश्चिमी लोग जिस तरीके की रंगीन जिंदगी जी रहे हैं, अव देखने का मुद्दा नहीं रहा। अब तो नई पीढ़ी के लिए अंग्रेजी जानना और मौका मिलने पर बाकायदा उस पर चर्चा करना भी एक मुद्दा है! पश्चिमी यूरोप में प्रेम का रूप काफी द्रुत लय में बदल गया है, उसकी तुलना में भारतीय उपमहादेश में यह धीमे लय में बदल रहा है। अब भी वहाँ मुक्त यौनता है। यहाँ मुग्ध यौनता है! यह यौनता शायद एक ही छलांग में मुखरता तक नहीं पहुँच पाती, फिर भी आगे बढ़ती जा रही है, धीरे-धीरे ही सही, आगे बढ़ रही है! अंधा प्रेम रातों-रात विलक्षण प्रेम में नहीं बदल सकता, यह सच है। मगर अब प्रेम उसी विलक्षणता की ओर ही भाग रहा है। अंधे प्रेम का गुणगान आजकल नहीं होता, क्योंकि आँखें खोलकर अगर न चला जाए, तो इतनी ज़्यादा ठोकर खाना पड़ती है कि अंत में एकबारगी पंगु होकर, बाकी जिंदगी गुज़ारने के अलावा और कोई उपाय नहीं बचता। इंसान के हिस्से में एक ही जिंदगी होती है, अरबी के पत्ते पर बूंद भर जल की तरह जीवन! किसी भी वक्त ढलक जाता है, गुम हो जाता है, ख़त्म हो जाता है-इस जिंदगी को आकर्षक ढंग से गुज़ारने का चाव, इंसान में अब पहले से ज़्यादा बढ़ रहा है। इसके पीछे भाववाद को दबाकर, अब वस्तुवाद और युक्तिवाद का विकास वहुत बड़ा कारण है। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि प्यार करते हुए, पेड़ तले गुजारा करने का चाव, अब किसी में नहीं है। अब भूल से भी कोई प्रेम की इस पहली शर्त को अपनी जुबान पर नहीं लाता। एक ज़माना था, जब अमीरजादे उपले वटोरने वाली लड़की की एक झलक भर देखकर, उसके प्रेम में पागल हो जाते और बेतहाशा उसके पीछे दौड़ जाते। गरीब रिक्शाचालक लड़के के साथ महलों की शहज़ादी, कुल एक पोशाक में चल पड़ती थी; घर की पढ़ी-लिखी, हसीन लड़की घर के नौकर चाकर के इश्क में पड़ जाती थी। सिर्फ प्रेम ही नहीं, परिवार के साथ लड़-झगड़कर, समाज की नियमनीति तुच्छ करके, असमान कर्म, चर्म, धर्म के किसी शख्स से विवाह कर लेती। चूँकि समाज में ऐसी घटनाएँ घटती रहती थीं, इसलिए साहित्य, चलचित्रों में भी उसकी अभिव्यक्ति होती थी। वे अभिव्यक्तियाँ इंसान को और ज़्यादा संक्रमित या प्रेरित करते हुए, और भी घटनाएँ, घटती चली गईं। सन् तीस से लेकर साठ तक, पूरे तीन दशक तक यही ढर्रा चलता रहा। लेकिन अब ज़माना बदल चुका है। आजकल के लड़के-लड़कियाँ इधर-उधर के कुछेक खुदरा प्यार-मुहब्बत में भले फँस जाएँ, मगर आँख-कान नाक सजग रखकर, स्थायी साथी का चुनाव करते हैं। उन लोगों के हिसाब-किताब में चित्त से ज़्यादा वित्त मौजूद रहता है! भले मत या मन न मिले, मगर वित्त ही सुख जुटाएगा। इस किस्म का विश्वास में अपनी जड़ें जमाता जा रहा है। भोगवादी आदर्श, सात समंदर, तेरह नदी पार नहीं, मीलों के फासले पर भी नहीं, अब घर-घर में, महज एक बटन भर दबाने भर की दूरी बच रही है। टेलीविजन का बटन दबाते ही आँखें चौंधिया देने वाली, कानों पर ताला लगा देनेवाली, पूँजीवाद की वज्रध्वनि सुनाई देती है! भोगवाद का आकर्षण, बड़ा तीखा आकर्षण होता है। इसलिए इतने अर्से का साम्यवाद, तोड़-मरोड़कर, कूड़े के ढेर पर पड़ा है। पूर्वी यूरोप से समाजतांत्रिक व्यवस्था एक फूंक में उड़ गई यह आकर्षण बेहद तीखा है, इसीलिए सीधे-सादे बंगाल में भी साँड़ की तरह लाल-सुर्ख कपड़े को अपने सींगों से धकियाते-छेदते, भोगवाद घुस आया है। भाव के साथ भोग को घोलकर, तर्क के चने में ज़रा-सा भोग का प्याज मिलाकर, प्रेम के स्वाद का मज़ा लेते हैं या जुबान का स्वाद बढ़ाने के लिए, भोग के पत्तल में नमक-मिर्च की तरह चुटकी भर तर्क और भाव मिला देने भर से काम चल जाता है। बहुत-से लोगों ने भाववाद को दुछत्ती के छोटी कोठरी में बंद रखकर, युक्तिवाद के साथ विशुद्ध भोगवाद को मिला दिया है। भोगवादी आदर्श की दीक्षा पाकर लड़कियाँ अव कठपुतली बनी, अपने चुने जाने के लिए बैठी नहीं रहतीं, बल्कि साथी के चुनाव में खुद भी हिस्सा लेती हैं।

औरतें जितना ज्यादा स्वाधीनता-बोध अर्जित करती हैं, उतना ज़्यादा उनका आत्मसम्मान बढ़ जाता है। अब वे लोग भाग्य या मर्दो के हाथ में यह 'प्रेम-प्रेम', 'विवाह-विवाह' का खेल पूरी तरह छोड़ने को तैयार नहीं हैं, इसलिए चुनाव का सारा हक़ मर्दो के हाथ में छोड़ देने से असंभावित होने की आशंका है। वे लोग घर-गृहस्थी में अपने पहले की औरतों की महज़ दासी वृत्ति देख चुकी हैं। आज की औरत ने इस वृत्ति को अस्वीकार कर दिया है और दूसरे शब्दों में आधुनिकता के जल में अपने को शुद्ध-पवित्र कर लिया है। और अब वह जरूरत पड़ने पर अपनी 'येस्टिटी बेल्ट' भी झटककर तोड़ देने की भी कतई परवाह नहीं करतीं। भोग के सागर में तितली तैराक क्या डुबकी लगाकर तैरेगी? अब इसी को लेकर काफी वितर्क होने लगा है। अनगिनत महान्-महान् आदर्शों ने चुपचाप विदा ले ली है! अब तो त्याग का आदर्श भी. लंबे अर्से तक बेकार बैठे रहकर. आवेग से थरथराते बंगाली जीवन से अपना बोरिया-बिस्तर समेट रहा है।

प्यार के साथ प्रेम का पार्थक्य काफी स्पष्ट है। प्यार की व्यापकता बहुत ज़्यादा है। हम सब अपने माँ-बाप, भाई-बहन, मित्र-सहेली को प्यार करते हैं। लंबे अर्से तक साथ-साथ रहते हुए, मिलते-जुलते हुए, आत्मीय स्वजनों में भी प्यार पनप जाता है। इस प्यार में शारीरिक प्यास नहीं होती। लेकिन किन्हीं अपरिचित दो लोगों में अचानक प्यार जाग उठे तो उस प्रिय इंसान को करीब पाने की आकुलता, तन की पोर-पोर में जो प्यास महसूस होती है, वही प्यार बड़ी तेजी से या धीरे-धीरे प्रेम में रूपांतरित हो जाता है। किसी ईश्वरीय प्रेम या प्रकृति प्रेम की नहीं, मैं औरत-मर्द के प्रेम की बात कर रही हूँ और यौनता के बिना यह प्रेम संभव ही नहीं होता। अब जो भी आदमी, चाहे जो भी क्यों न कहे, जिस प्रेम में कोई शारीरिक संपर्क नहीं होता, प्रेम सिर्फ प्रेम होता है! प्रेम स्वर्गीय होता है। एक वक्त ईश्वर प्रेम की तरह औरत-मर्द का काम-गंधहीन प्रेम शुरू ज़रूर हुआ, लेकिन ज़्यादा दिन टिक नहीं पाया। प्रेम में विवर्तन हो रहा है, विवर्तन हर पल घटता रहा है, सिर्फ आँखों को नज़र नहीं आता। जब शताब्दियाँ गुज़र जाती हैं, तब नज़र आती हैं! अब प्रेम सिर्फ चुंबन के लिए और थोड़ा-बहुत शारीरिक स्पर्श के लिए उठाकर नहीं रखा जाता। फिर यह प्रेम-कोटेड यौनता-वटी, असल में किसकी खातिर है? किसके आनंद या तृप्ति के लिए? पुरुष-शासित इस समाज में इस बटी का स्वत्वाधिकारी पुरुष ही है। इसमें निश्चित रूप से किसी को शक-शुबहा नहीं रहा। प्रेम और यौन-कर्म में पुरुष की भूमिका मुख्य होती है, औरत की भूमिका तो नितांत ही गौण होती है। समाज में जिसकी, जो स्थिति है! पुरुष ऊपर, नारी नीचे! पुरुष प्रेम का प्रस्ताव देगा, पुरुष ही कोई कदम उठाएगा! स्पर्श...चुंबन वगैरह-वगैरह जो भी है। पुरुष ही करेगा। औरत तो बस, नजरें झुकाए रहेगी, आरक्त चेहरा, लज्जा-संकोच से ढंकी रहेगी। यौनता के वक्त भी यही स्थिति! पुरुष कर्ता, संचालक और प्रधान अभिनेता, नारी पार्श्व चरित्र! पुरुष सक्रिय, नारी निष्क्रिय! नारी जो निष्क्रिय रहती है, इसकी वजह नारी नहीं है। पुरुष है! पुरुष ने वेद, बाइविल, कुरान रचना की समाज के नियम नीति तैयार किए और खुद युग-युगों से मालिक बना बैठा है। उसी मालिक के निर्देश पर नारी को मंच से उतारकर, एक तरह से उसे निष्क्रिय कर दिया गया है। चूंकि समाज के सारे नियम कानुन पुरुष की ही चाह मुताबिक चलते हैं, यह भी उसी तरह जारी है। नारी तो पुरुष की भूख-प्यास मिटाने की 'चीज़' भर है। सुख जुटाने की मशीन! काम जाहिर करने या यौन आचरण में सक्रिय होने से, औरत को बेशर्म या बाज़ारू वेश्या कहकर, कोई भी मर्द गाली देने में बिल्कुल नहीं हिचकिचाता। असल में यौन शिक्षा में औरत अगर अनाड़ी हो, तो मर्द बेहद खुश होता है। औरत अगर अनाड़ी हो, तो मर्द अपनी पटुता दिखाकर, एक किस्म का पुलक महसूस करता है; औरत उसकी मुट्ठी में ही है, यह सोचकर बेहद पुलकित होता है। औरत की देह पर सबसे कम अधिकार औरत का ही होता है। देह के बारे में औरत जितना कम जाने-बूझे, पुरुष को उनके शरीर पर अपनी मिल्कियत वसूल करने में उतनी ही ज़्यादा सुविधा होती है। पुरुष को सती-साध्वी नारी के साथ बेहद मज़ा आता है। औरत का जीवन तो मर्द को सुखी करने के लिए, खुश करने के लिए ही होता है। अधिकांश औरतों को यह जानकारी भी नहीं होती कि यौनता असल में औरत को कोई तृप्ति देता भी है या नहीं। अनगिनत औरतों को तो जिंदगी भर यह पता ही नहीं चलता कि संगम का चरम सुख आखिर होता क्या है! रोज़मर्रा की जिंदगी के हर क्षेत्र में औरत-मर्द के बीच वैषम्य पल-पल जाहिर है। इसलिए अति स्वाभाविक तरीके से प्रेम के क्षेत्र में भी यह विषमता जाहिर है। समवेत जीवन में बाकी सब चीज़ों की तरह अगर प्रेम और यौन-संपर्क में भी औरत-मर्द में असमानता मौजूद हो, तो वह प्रेम, प्रेम तो नहीं ही होता, यौन संपर्क भी सच्चा नहीं होता। वह तो नितांत बलात्कार भर होता है।

औरत को दबाने के जितने सारे हथियार मर्दो के पास मौजूद हैं, उनमें सबसे तीखे और तेज़ हथियार का नाम है-प्रेम! यह प्रेम की बदौलत ही मर्द, किसी भी औरत को अपने काबू में कर सकते हैं। किसी भी शिक्षित, सजग, स्वनिर्भर, तनकर खड़ी किसी भी औरत का मेरुदंड तोड़-फोड़कर चूर-चूर कर देने के लिए सबसे ज़बर्दस्त हथियार है। औरत की आखिरी ताकी, अगर जरा भी बची-खुची रह जाती है, तो इस हथियार से उसका भी हरण किया जा सकता है। इसी हथियार के बलबूते पर औरत का तन और मन, दोनों अपनी मुट्ठी में कैद किया जा सकता है। किसी भी सभ्य देश में, जहाँ औरत को बराबरी का हक हासिल है, वहाँ औरत मर्द के रिश्ते में कभी कोई असमानता, झाँक भी नहीं सकती। कोई, किसी को अपनी जायदाद नहीं बनाता, व्यक्ति-स्वाधीनता की कद्र, वहीं सबसे ज्यादा है। प्रेम कभी भी कोई कारागार नहीं है। यह तन और मन को जकड़ने वाला जंजीर भी नहीं होता। प्रेम तो आनंद के लिए होता है, मुक्ति के लिए होता है। मुझे पक्का विश्वास है। जब तक औरत, इंसान के तौर पर अपनी भरपूर आज़ादी हासिल नहीं करती, तब तक प्रेम-प्यार मर्दो की निजी संपत्ति बनी रहेगी! प्रेम हथियार ही बना रहेगा। वे लोग अकेले ही मंच पर दखल जमाए रहेंगे। मूल चरित्र में मर्द और औरत का वही पार्श्व चरित्र ही फिक्स्ड है।

लेकिन मैं नई पीढ़ी में, हालाँकि अभी वे लोग अल्पसंख्यक ही हैं, नौजवान औरतों में जागरूकता की चिनगारी देख रही हूँ। अब वे लोग चाहें तो काफी साहसी और बेपरवाह तरीके से, विपरीत धारा में भी अपनी नाव बहा सकती हैं। यह बात उन लोगों ने साबित कर दी है। पतिव्रता होने के संस्कार, उन लोगों ने जला-फूंककर उड़ा दिये हैं, बहा दिये हैं, गर्क कर दिये हैं। कहना चाहिए, विवाह से पहले का कुँवारापन, विवाह के बाद का सतीत्व, मातृत्व वगैरह की गंध, आज की औरत की नाक तक पहुँचती तो है, लेकिन उसने नाक सिकोड़कर झटक दिया है और सालों की जंजीर तोड़कर अपने को मुक्त कर लिया है।

एक ज़माना था, जब नन्ही-नन्ही बच्चियों को गर्दन से पकड़कर, घाट के मुर्दे से ब्याह दिया जाता था। अब वह वक्त गुज़र चुका है। बाल विवाह का काला अध्याय खत्म हो जाने के बाद, किसी श्वेत-शुभ्र का उदय हुआ है, ऐसा भी नहीं है। आज भी शिशु-किशोरों को उनके माँ-बाप जो कहते हैं, उसका पालन करने को वे लोग विवश होते हैं। खैर गर्दनिया देकर विवाह भले न कराएँ, लेकिन गर्दनिया देकर, बड़ों की बातचीत से उन्हें ज़रूर हटा-बढ़ा दिया जाता है। प्रेम और यौनता को बालक-बालिका की पहुँच से हटाए रखकर, समाज के ज्ञानी-गुणी लोगों ने, उन्हें निष्पाप रखने का खासा अच्छा इंतज़ाम किया है, यह सोचकर वे लोग तृप्त होते हैं। कहीं भी, ऐसा कोई इंतजाम नहीं है, जिसके जरिए यौनता के बारे में बालक-बालिकाओं की नींद हराम करनेवाला कौतूहल मिटाया जा सके! स्कूलों के पाठ्य-क्रम में क्या यौन-शिक्षा को अनिवार्य नहीं कर देना चाहिए? चाहिए और ज़रूर चाहिए! जब तक यह इंतज़ाम नहीं किया जाएगा, बच्चे निषिद्ध चीजों के प्रति कौतूहल, आकर्षण, मोह में, दिशा-दिशाओं में दौड़ते-भागते रहेंगे और अज्ञान के पोखर-गढ़ों में पड़े-पड़े हाथ-पाँव मारते रहेंगे। इससे तो बेहतर है, उन लोगों को यह समझा दिया जाए कि औरत क्या है? मर्द क्या है? प्रजनन की गुप्त बातों की उन्हें जानकारी दे दो! बच्चे कैसे पैदा होते हैं? वीर्य क्या है? शुक्राणु क्या है? कैसे डिम्ब की खोज में लाखों-लाखों शुक्राणु, पूरी जरायु में गोल्लाछूट खेलते हैं। यौन-संसर्ग के सुरक्षित पक्ष के बारे में पूरी जानकारी रहे, तो कम उम्र लड़के-लड़कियाँ मुसीबत के कीचड़ में रपटकर गिरने से विरत रह सकते हैं। अभिभावक वर्ग आखिर कितने दिनों तक अपनी संतान के गले में रस्सी डालकर, उन्हें अपनी मुट्ठी में रखना चाहते हैं? ठीक कितनी उम्र में वे लोग निषेध की कँटीली बाड़ लाँघने की आज़ादी देना चाहते हैं? जब मैंने यह जानने की कोशिश की, तो जवाब मिला-'लड़के के लिए कोई निषेधाज्ञा नहीं है, लेकिन लड़कियों के संदर्भ में है। अगर संभव हुआ, तो वे लोग लड़कियों को आजीवन बाँधे रखेंगे। लड़की घर में कैद रहेगी, और वक्त आने पर ब्याह के पाटे पर बैठ जाएगी।

लेकिन दिनोंदिन, अनगिनत लड़कियों का वक्त आने पर भी विवाह के पाटे पर बैठना नहीं हो पाता। ऐसा इसलिए नहीं होता, क्योंकि ब्याह के पाटे पर वे लोग बैठती नहीं। किसी ज़माने में यह कहा जाता था कि लड़कियाँ कूड़ी में ही बूढ़ी हो जाती हैं, धारणा के इस रोड़े को परे हटाकर जवान औरतें तीस के बाद भी 'नो चिंता, डू फुर्ती' -कहकर लिखने-पढ़ने, नौकरी-चाकरी, रोजगार-कारोबार में जान-प्राण से जुटी हुई हैं! अपनी दक्षता और मेधा के ज़ोर पर वे लोग अपने पैरों पर खड़ी हैं, अपने सम्मान की रक्षा कर रही हैं। उम्र हो गई, मगर विवाह नहीं हो रहा है, इसके लिए वे लोग अब हाय-तौबा भी नहीं मचातीं। चाहे किसी भी मर्द से विवाह करने को, अब वे लोग राजी नहीं होतीं। रिश्तेदार कोई भी लड़का लाकर सामने खड़ा कर दे और लड़की उसका आगा-पीछा-तल्ला, कुछ भी न जानते हुए भी, फट् से राजी हो जाएं, नैव नैव च!



...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book